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कविता

ब्रेकअप - एक

घनश्याम कुमार देवांश


उसे उन गलतियों के बारे में कुछ भी पता नहीं था
जो ग्लेशियर की तरह हमारे शरीरों के बीचों-बीच
बिस्तर पर जम गई थीं
मैं ग्लेशियर के इस तरफ खड़ा उसकी बर्फीली आँखों
में ताक रहा था और वे सारे सबूत इकट्ठा
करना चाह रहा था
जो मेरी गलतियों के हिस्से में आने थे
बर्फ का कोई नुकीला टुकड़ा
कोई खंजर, कोई पिस्तौल
या कोई कठोर तिकोना पत्थर
अथवा ऐसी ही कोई मामूली चीज
जो किसी खरगोश के नन्हें शावक जैसे नर्म, मुलायम और अबोध प्यार का कत्ल कर देने के
लिए काफी होता
इतनी दूर से ये जान पाना बहुत मुश्किल था
कि क्या सबूतों को लेकर इतनी ही बैचैनी उसके भी
भीतर थी या नहीं
क्या उसने भी जुटाए थे मेरे या अपने विरुद्ध कोई सबूत
आखिर इसमें तो कोई दो राय नहीं
कि कत्ल तो हुआ ही था
और मौका-ए-वारदात पर
हम दोनों के सिवा और कोई था भी नहीं
इस कत्ल के दुख पर इस रहस्य की बेचैनी भारी
पड़ रही थी कि इसे हम दोनों में से
किसने अंजाम दिया था
जाहिर है बिस्तर पर पड़ी अकेली निर्जीव तकिया तो
यह काम नहीं कर सकती थी
मैं कई रातों उसे कमरे में अकेली सोता छोड़
छत पर नंगे पाँव टहलता रहा था
ऐसा लगता था कि अब मैं
हमेशा इसी तरह बदहवास
चाँद के नीचे टहलता रहूँगा
और वह सोती रहेगी खामोश दीवार से मुँह सटाए
तब मुझे पहली बार लगा था
कि मनुष्य मृत्यु या मृत्यु के
जैसे अन्य किसी भयानक दुख
से भी अधिक पीड़ित किसी रहस्य से होता है
ऐसे में वह या तो रहस्य से बचना चाहता है
या समय रहते उसे सुलझा लेना चाहता है
इसी रहस्य की पीड़ा से वह दर्शन से लेकर विज्ञान तक
जन्माने को मजबूर होता है
इसी रहस्य के कोड़े से पीड़ित वह गॉड को एक पार्टिकल में
बदलकर देखना चाहता है
और इसी के चलते टहलते हुए पृथ्वी की परिधि के बाहर
चला जाता है
वह आखिरी बार खामोश थी फोन के दूसरी तरफ
उसकी खामोशी समकालीन दुनिया का सबसे बड़ा रहस्य थी
मैं डर से जितनी जोर से चीख सकता था
उतनी जोर से चीखा था
मुझे इस रहस्य से मुक्त कर दो
 


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